यादों के झरोखों से-निश्छल प्रेम Asha Saraswat द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • नज़रिया

    “माँ किधर जा रही हो” 38 साल के युवा ने अपनी 60 वर्षीय वृद्ध...

  • मनस्वी - भाग 1

    पुरोवाक्'मनस्वी' एक शोकगाथा है एक करुण उपन्यासिका (E...

  • गोमती, तुम बहती रहना - 6

                     ज़िंदगी क्या है ? पानी का बुलबुला ?लेखक द्वा...

  • खुशी का सिर्फ अहसास

    1. लालची कुत्ताएक गाँव में एक कुत्ता था । वह बहुत लालची था ।...

  • सनातन - 1

    (1)हम लोग एक व्हाट्सएप समूह के मार्फत आभासी मित्र थे। वह लगभ...

श्रेणी
शेयर करे

यादों के झरोखों से-निश्छल प्रेम

छोटे-छोटे बल्बों की झालरों से घर और दरवाज़े झिलमिला रहे थे ।जैसे हर नन्हा बल्ब दुल्हन की ख़ुशी का इज़हार कर रहा हो।मैं उन्हें निहारकर उनमें अपनी मॉं के हंसते मुस्कुराते चेहरे को महसूस कर रही थी,जैसे वह खिलखिला कर आशीर्वाद दे रहीं हो-तुम्हारा जीवन सदा ख़ुशियों से भरा रहे ऐसा मुझे आभास हुआ ।
मेरी भाभी और सखियों ने गहने पहनाकर साज -श्रृंगार कर साड़ी पहनाकर मुझे तैयार किया था ।मैं अपने आने वाले समय को लेकर चिंतित थी,तभी भैया आये मेरे सिर पर हाथ फिराकर बोले -तुमने खाना खाया? मैंने नहीं में सिर हिलाते हुए उत्तर दिया ।दीदी भी आ गईं,घर में सबको डाँटने लगीं- अरे जिसके लिए यह सब हो रहा है,उसका तो ध्यान रखो या अपनी तैयारी में ही सब लगे हो।
उसके बाद भैया खाने की प्लेट लेकर आ गये दुलार करते हुए कहा कि खाना खाओ और हाथ से अपने आँसू पोंछने लगे,उन्हें देखकर मैं भी रोने लगी।कभी बड़े भैया से कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं हुई न आज कुछ कह पा रही थी।
मेकअप ,साड़ी ,बिंदी में उनके सामने चेहरा ऊपर करने का साहस मुझमें नहीं था।नीचे मुँह करके निवाला लेकर खाती रही।भैया वह हर चीज लाकर देते थे जिसकी मुझे ज़रूरत होती,उनसे कभी सामने बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई,मैं अन्दर से घबराती इसलिए असमर्थ थी।
तभी दौड़ते हुए बच्चों का स्वर सुनाई दिया-चलो बारात आ गई देखने चलो-सुनकर ऐसा लगा जैसे सुंदर सपना देखते हुए किसी ने झकझोर कर जगा दिया हो।
माँ जगदम्बा और महादेव का ध्यान कर जैसे ही आगे बढ़ी अत्यंत प्रिय सखी अथाह प्रेम और अश्रुपूरित होकर लिपट गई।जबसे हमारी मित्रता हुई थी हम दोनों की मॉं भगवान के पास थीं ।जब-तब हम अपने दुख-सुख बॉट लिया करते थे लेकिन आज दौनो को अलग होने का डर सता रहा था जाने-अनजाने हम दौनो ने एक व्यक्ति को दोषी मान लिया था ,जो दूल्हे के रूप में आ रहे थे।
बारात का नाम सुनकर घबराहट में आँखों से आँसू टप-टप गिरने लगे ।कितनी बार हम दोनों डॉंट खाते क्योंकि जब मैं उनके घर जाती तो वह मुझे घर पर छोड़कर जाती और जब वह मेरे घर आती तो मैं उनके घर पहुँचाने जाती थी।
यही सिलसिला कई सालों तक चलता रहा ।
बड़ी दीदी ने हमारी तंद्रा तोड़ी—चलो बारात आ गई ,जयमाला होगी।भाभी से टीके की तैयारी के लिए कहा—-अरे तुम्हारा मेकअप ख़राब हो गया ठीक करो।पूरी रात विवाह के कार्यक्रम होते रहे मेरी सखी मुझे नज़र नहीं आई ।प्रत:बेला में विदाई की तैयारी हो रही थी मैं घूँघट में से उन्हें खोज रही थी किन्तु वह नहीं दिखाई दी ,विदाई के लिए मैं सबसे मिली ,पुरानी यादों को समेटे कार में बिठा दी गई ।कार चलने ही वाली थी किसी ने मेरा हाथ बहुत ही मज़बूती से पकड़ कर ज़ोर लगा कर कहा ——-मत जाओ मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाउंगी-नहीं रह पाउंगी———मेरी विदाई हो गई और वह रोती रही आँखों में सूजन दिल में मेरे लिए ढेर सारा प्यार ।
मैं ससुराल मेंअपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए सोच रही थी क्या यही निश्छल प्रेम है ।